यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
इस श्लोक का अर्थ है: हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म ग्लानि यानी उसका लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं (श्रीकृष्ण) धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।
श्लोक का अर्थ है: सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए... और धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।
हमारे देश के लोगों को इतना ईश्वरीय विश्वास कभी दिलाया ही नहीं गया। उन्हें तो शिक्षा व प्रशासन प्रणाली ने जिसकी लाठी उसकी भैंस सिखाया। सत्य तथा कर्म फल व अध्यात्म को अन्धविश्वास का नाम दिया गया।
झूठ, लूटमार ,अवैध कब्जे ,उच्च-नीच ,आमिर-गरीब ,व अधर्म का राज्य चलाया गया।
दुष्टों को दण्ड मिलता ही मिलता है। इसे कभी प्रचारित नहीं किया।
मनुष्य ,पशु,पक्षी ,जलचर,नभचर ,चराचर जीव सबका यौनियो के अनुसार धर्म है। मनुष्य ऐसा जीव बनाया है जो सत्कर्म और दुष्कर्म के लिए क्षमता ,मन ,बुद्धि से स्वतंत्र है। दुष्कर्मियों का नाश करने के लिए जो तत्पर हो वह वीर, बहादुर , माननीय, राजा , कहलाता है ,जो दुष्कर्मियों का नाश कर दे वह सम्राट , सिद्ध ,ऋषिराज कहलाता है। जो दुष्कर्मियों का नाश करके धर्म की स्थापना करे ,लोगों को सही और गलत का भेद कराये , उन्हें उचित मार्ग का प्रयोग कराए वह अवतारी होता है।
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