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Know BhagwadGeeta 3/27

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ भावार्थ :  वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है॥ श्रीमद्भगवद्गीता एक मात्र ऐसा ग्रन्थ है जो स्पष्ट करता है कि सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते है और अज्ञानी अहंकारी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है। अतः सावधान होकर कर्म करो। मोहित अहंकारी होकर कर्म न करें। 

Himachali Riwaj

याद आओ जे म्हारे घरों में सभी जवांसो रो मर्दो खे ए बात माननी पड़ो थी के जबे बी आपने घरों खे आई तो कें न कें जरूर लेह आई। ओरके पौरके री संभाल लोणी।खाली हाथ ना घरों खे  आई ना रेके रे थें  जाइ।  तेनी दे बाद आपणी रोजकी योजना बनानी। सबेरे उठे रो बिल्ली ,कुत्ते ,चिड़ू पखीरु खे रोटी देओ रो तेनी  दे बाद ओबरे में जाइओ। तेनी दे बाद घरो साथी रे खेचों में प्याज ,मटर ,मिर्च ,पुदीना ,कद्दू ,घीया ,बीन,तुलसी ,लहसण ,टमाटर ,सरसों, मेथी, धनिया  जो बिज रखा हो से सिंज लोना।जिशे खेचो दे आई तो समिधा,पुदीना,धनिया,सब्जी ,फल ,घास ,बेलो,लीपने री माटी,फूल घरो खे जरूर लियोना। कई बार जाने से कई चीजों आ जाइओ थी रो तेनी में दे आस-पडोश  खे जरूर बांडनी ।   उशे भी केसरी बिना दिए चीज नि लोणी।  आजकी जवांसो रो मर्द , बच्चे खेचों में कमी जाओ  रो चले हुन्दे खेचों  में दे खाली हाथ ओरे घरो खे । ओरले पोरले रे खेचों में दे बिना पूछे कुछ चक लो। बाँड्ने रो, मिले रो खाने री तो राखी नि हाई। 

Know Bhagwad Geeta3/9

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः । तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥ भावार्थ :  यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर॥ यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं-  १- देवपूजा, २-दान, ३-संगतिकरण।  संगतिकरण का अर्थ है-संगठन। यज्ञ का एक प्रमुख उद्देश्य धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को सत्प्रयोजन के लिए संगठित करना भी है। इस युग में संघ शक्ति ही सबसे प्रमुख है। परास्त देवताओं को पुनः विजयी बनाने के लिए प्रजापति ने उसकी पृथक्-पृथक् शक्तियों का एकीकरण करके संघ-शक्ति के रूप में दुर्गा शक्ति का प्रादुर्भाव किया था। उस माध्यम से उसके दिन फिरे और संकट दूर हुए। मानवजाति की समस्या का हल सामूहिक शक्ति एवं संघबद्धता पर निर्भर है, एकाकी-व्यक्तिवादी-असंगठित लोग दुर्बल और स्वार्थी माने जाते हैं। गायत्री यज्ञों का वास्तविक लाभ सार्वजनिक रूप से, जन सहयोग से सम्पन्न कराने पर ही उपलब्ध होता है। यज्ञ का तात्पर्य है-...

System out of system

हिमाचल में पटवारी,पुलिस ,जुडिशरी क्लर्क ,वन रक्षक अदि की भर्ती प्रक्रिया चलती रहती है।   नियुक्ति /भर्ती का जिम्मा हिमाचल प्रदेश लोक सेवा आयोग  शिमला  या हिमाचल प्रदेश स्टाफ सिलेक्शन बोर्ड हमीरपुर का है। मुझे कई वर्षों का अनुभव है कि  कई विभाग अपने रोजमर्रा के जरुरी कामों को छोड़ कर भर्ती का सारा कार्य खुद कर रहे है क्यों ?  सर्विस कमीशन शिमला तथा स्टाफ सिलेक्शन बोर्ड को लिखित व इंटरव्यू लेने और गोपनीयता बनाए रखने का पूरा अनुभव होता है। वह  विभाग जो खुद भर्ती कर रहे हैं  वह अव्यवस्था की शिकार हो जाती है तथा विवादों में घिर जाती है अतः सरकार को सही व्यवस्था बनानी चाहिए। हिमाचल प्रदेश लोक सेवा आयोग  शिमला  या हिमाचल प्रदेश स्टाफ सिलेक्शन बोर्ड हमीरपुर के अनुभवी स्टाफ का उपयोग करना चाहिए। इससे विभागीय दबाव से होने वाली भर्ती के संशय को समाप्त किया जा सकता है।    

Know BhagwadGeeta 3/20

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥ भावार्थ :  जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है॥ श्रीमद भगवद्गीता एक मात्र शास्त्र है जो कर्तव्य कर्मों को करने की  भावना को बल  देती  है। भगवान कृष्ण यह ज्ञान अर्जुन को दे रहे हैं। राजा जनक जैसे महान  ज्ञानी ने आसक्ति रहित राज काज किया और परम पद को प्राप्त हुए।   यदि दुनियां को श्रीमद भगवद्गीता आचरण में आती  तो झूठे सम्प्रदाय  , आतंकवाद  ,निर्लज्जता  ,शोषण, चोरी-डाका ,गुंडा गर्दी ,भ्र्ष्टाचार ,झूठे वादे को कभी  जाती, सम्प्रदाय,धर्म के आधार पर  सामाजिक मान्यता न मिलती।उपरोक्त के खिलाफ जन आंदोलन होता। आध्यात्मिकता का वैज्ञानिक परीक्षण है श्रीमद्भगवद गीता। यह मनघड़ंत विचार नहीं है।  दुनियां का कोई भी मनुष्य इसका परीक्षण करके सही पायेगा।

Know bhagwad Geeta 3/19

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥ भावार्थ :   इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है॥ भगवान कृष्ण  अपने सखा अपने जीजाश्री अर्जुन से कहते हैं कि तुम आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म को करें ,इससे परमात्म प्राप्ति भी हो जाती है। हमारे देश में जो मनुष्य भगवान प्राप्ति के लिए साम्प्रदायिक  आसक्ति के कारण अपनी जाती ,अपने कुल ,अपनी पूजा पद्धति को श्रेष्ठ बताने के लिए मार-काट ,झूठ कपट ,लिंग भेद ,अन्याय का सहारा लेते हैं ,परिवार ,क्षेत्र ,देश व समाज का कर्तव्य पूरा नहीं करते  श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार उन्हें परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी। श्रीमद्भगवद गीता उन डरपोक /स्वार्थी मनुष्यों  को चेतावनी देती है किआसक्ति से   कर्म   करने से तथा कर्तव्य को छोड़ने से  परमात्म प्राप्ति न होगी।  राजा का कर्तव्य होता है ,प्रजा का पालन पोषण ,न्याय करना , परन्तु इस देश क...

Know Bhagwad Geeta 3/11

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ भावार्थ :   तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥ दुनियां का एक मात्र ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता  यह घोषणा करता है कि मनुष्य  देवी देवताओं को उन्नत करे । मूर्ख  लोग कहते हैं कि देवी-देवता को मत मानों ,अरे ये तो जानो देवी -देवता यानि जल ,अग्नि,वायु, भूमि,(शिक्षा +ज्ञान ), नदियां,पर्वत को उन्नत (शुद्ध ,पवित्र)न रखने  से इस युग में प्रदूषण और विनाश होगा।  मुर्ख अज्ञानी लोग नहीं जानते कि सभी देवी देवता  शिव और शक्ति के अंशावतार होते हैं।  ग्रह ,तारामंडल,सूर्य ,चंद्र ,किरणे ,गैस सभी का प्रकृति में महत्व है। उपरोक्त प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवता करके विभिन्न नामों से  सनातन धर्म में  स्थान मिला है। 

Bhagwad Geeta 3/8

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥ भावार्थ :   तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥  श्रीमद्भगवद गीता कितना स्पष्ट करके शास्त्र विहित कर्म करने का आदेश देती है।  कर्म करना अत्यंत आवश्यक कहा गया है। अर्थात बिना कर्म किये परोपजीवी बनने से स्वयं व देश का भला कैसे होगा।  शास्त्र संवत कर्म को ही करना श्रेयस्कर है जिससे प्रसन्नता,शांति प्राप्त हो।  आज भी देश में  जनता को  शास्त्र संवत कर्म की जानकारी नहीं दी जाती। 

Bhagwad Geeta 2/48

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय । सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ भावार्थ :  हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।) ही योग कहलाता है॥ श्रीमद भगवद्गीता एक मात्र शास्त्र है जो कर्तव्य कर्मों को करने की समत्व योग भावना को बल देता है। भगवान कृष्ण यह ज्ञान अर्जुन को दे रहे हैं। यही ज्ञान मानव मात्र के लिए भी आवश्यक है।  श्रीमद भगवद्गीता वेद शास्त्रों का सारांश है। पूरे वेद शास्त्रों को पढ़ने समझने के लिए अनेक विश्वविद्यालय व् अनुसन्धान संस्थान खोलने होंगे जिससे कर्तव्य कर्मों को समझ सके इसलिए भगवद्गीता को भारत में अनिवार्य करना चाहिए। परन्तु इस देश के गुलाम मानसिकता वाले लोग सरकार और प्रशासन में कब्ज़ा करके बैठे हैं और वो कभी नहीं चाहते कि विज्ञान और अध्यात्म का विकास हो।  दुनिया के विकसित देश विज्ञान का प्रयोग करते हैं और अपने देश के नागरिकों को गुल...

Bhagwad Geeta 2/41

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥ भावार्थ :   हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं॥ दुनियां का एक मात्रा ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता ही यह घोषणा करता है कि कर्मयोगी की  निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है। लेकिन यदि विवेकहीन मनुष्य की बुद्धि बहुत भेद वाली होती है। उदाहरण के लिए हमारे देश में भेद बुद्धि के कारण व्यक्ति निंदक ,उदास ,भयभीत,शंकालु बनता है। लोग भगवदगीता को नहीं जानते, मानते इसीलिए प्रसंन्न नहीं रह सकते। पूरी दुनियां के १५० देशों की प्रसन्नता के रेंक में भारत का स्थान १४० वां है। आप तर्क देंगे कि दूसरे देशों के लोग भी तो श्री गीता विहीन है फिर ऊपर का रेंक कैसे ? देखिये हमारे पास उच्च विचार संकल्प सूत्र १००० है तो विकल्प भी १००० कर देते है प्रयोगशाला  की आदत नहीं है ,विदेशियों का झूठ भी मान लेते हैं । उससे भेद बुद्धि ज्यादा कमजोर होगी। विदेशियों के पास ...

Srimad Bhagwad Geeta 2/47

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ भावार्थ :  तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥ यदि कर्म करने में  आसक्ति होगी तो  हमारे संकल्प और विकल्प ज्यादा से ज्यादा होते रहते हैं उससे किए गए कर्म का परिणाम अनुरूप नहीं आता ,यदि कर्म को कर्तव्य समझ कर किया जाए और आसक्ति न हो तो संशय की गुंजायश नहीं रहती। संतुष्टि रहती है। मन प्रसन्न रहता है।  दुनियां का एक मात्र ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता ही यह घोषणा करता है कि मनुष्य का कर्म करने का अधिकार तो है परन्तु उसका फल देना / लेना हमारे अधिकार में नहीं है। इसलिए कर्तव्य समझ कर कर्म करते रहना चाहिए।   फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥

Wah bhagwad Geeta 2/31

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ भावार्थ :   अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥ दुनियां का एक मात्र ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता ही यह घोषणा करता है कि क्षत्रिय यानि राज काज वाले को डरपोक नहीं होना चाहिए धर्मयुक्त युद्ध करना चाहिए उदाहरण के लिए  पूर्व प्रधानमंत्रियों   ने १९४८ , १९७१ में भारतीय  सेना द्वारा पाक फोजों को खदेड़ने /हराने के बाद भी जीता हुआ इलाका बार बार छोड़ना  कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं रहा।  वर्ष ११९१ में राजा पृथ्वीराज चौहान ने आक्रांता मुहम्मद गौरी को हराया और परन्तु अभिमान वश उसे छोड़ दिया अगले ही वर्ष उसने राजा पृथ्वीराज चौहान को हराया और क्रूरता से समूल  विनाश किया।  जबकि भगवान कृष्ण ने दुष्ट जरासंध को मथुरा से द्वारिका बसने के बाद भी मरवाया था। 

My Bhagwad Geeta 2/29

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः । आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌ ॥ भावार्थ :  कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसकोनहीं जानता॥  दुनियां का एक मात्रा ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता ही यह घोषणा करता है कि  महापुरुष ही आत्मा को सुनता ,देखता ,और  वर्णन करता है। संत लोग इसे सुनाते हैं परन्तु जनता सुनकर भी नहीं जानती।  आत्मा को जान लेने से भ्र्म ,भय ,इन्द्रिय गत दोष   व विषयों से ग्रसित नहीं होता। 

Gyan amrit Bhagwad Geeta 2/15

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ भावार्थ :  क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥ पूरी दुनियां का एक मात्रा ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता ही यह घोषणा करता है कि मोक्ष का अधिकारी वही होता है जिसे इन्द्रिय ( ५ ज्ञान इन्द्रिय और ५ कर्म इन्द्रिय ) और विषय ( काम ,क्रोध, लोभ,मोह, अहंकार ) के संयोग व्याकुल नहीं करते।  आज के युग में सभी सम्प्रदाय ,जातियों ,अमीर -गरीब ,सत्ता -विपक्ष ,रंग भेद,क्षेत्र भेद ,स्त्री-पुरुष अदि के आधार पर संघर्ष चल रहा है। सभी सम्प्रदाय,धर्म भेद के आधार पर संघर्ष रत हैं। इसी आधार पर नए - नए  नीती , नियमों ,  धर्म का छोटे - बड़े कबीलों में  प्रचलन चल पड़ता है। अपने कबीलों को कट्टर और बड़ा करने की होड़ लगती है। इस तरह कोई भी मोक्ष परायण नहीं होता। इन्द्रिय और विषय के के संयोग जिसे जितनी मात्रा में  अधिक व्याकुल  करते हैं  उतना ही वह  ...

Bhagwad Geeta 2/13

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ भावार्थ :   जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।                            यह भगवद्गीता है जो जीवात्मा की इस देह में अवस्थाओं के बारे में जानकारी देती है। अनेक सम्प्रदाय तो पुनर्जन्म ,अलग शरीर धारण करने के विचार नहीं रखते। अतः धीर वीर  को शरीर पर मोहित न होने को कहा गया है।  किसी भी सम्प्रदाय ,धर्म का व्यक्ति इस सत्य को परख सकता है। परखेगा तब यदि कोई श्रीमद भगवद गीता का ज्ञान देगा। 

Wah Bhagwad Geeta 2/62

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥ इस श्लोक का अर्थ है: विषयों (वस्तुओं) के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने विषयासक्ति के दुष्परिणाम के बारे में बताया है।) १) संसार में मनुष्य जब उन  वस्तुओं ,सत्ता ,विलास ,के बारे में सोचता रहता है जो उसके पास नहीं है और वह कामना ,आसक्ति पैदा कर  देती है ,यदि उसमे व्यवधान पैदा हो तो क्रोध आता है। इसी का परिणाम युद्ध ,आतंकवाद ,अपराध प्रवृति होती है।  २) विषयों में आसक्त व्यक्ति अपनी इच्छा पूर्ति के लिए क्रोधी एवं हिंसक स्वभाव वाला बन जाता है और लूट -खसूट,शोषण,भेदभाव के कानून नियम बनाता रहता है। वही शोषण के कानून,सम्प्रदाय पूरी दुनियां को प्रभावित करता है।  ३ ) पूरी दुनियां में छा जाने की कामना भी  हिंसक क्रोध को जन्म देती है उसी का परिणाम विध्वंसक हथियारों का विकास किया जा रहा है। 

know Bhagwad Geeta 2/63

क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:। स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ इस श्लोक का अर्थ है: क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है. सत्य परीक्षण है श्रीमदभगवदगीता ----- अतः अविद्या , क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य अत्याचार करता  है तथा खुद अपना ही का नाश कर बैठता है.आप स्वयं देखेँ कि आतंकवादी सम्प्रदाय को लेकर क्रोधी और हिंसक हो जाते हैं। उनका विनाश परिवार सहित होता देखा गया है।